बुधवार, 14 सितंबर 2011

नास्तिक बन गया आस्तिक

                                                            || श्री गणेश दत्त गुरुभ्यो नमः ||
आज मैं अपने पहले लेख की शुरुआत आधि देवता गणेश जी और भगवान दत्त जी को नमन करके कर रहा हूँ | लेकिन लगभग तीस साल पहले मैं ऐसा नहीं था | मैं पक्का नास्तिक था | मेरे सौभाग्य से मेरा जन्म एक धार्मिक परिवार मे हुआ | विशेषतः मेरी माँ , जो आज भी इस बात पे पूरा विश्वास करती है की भगवान के कृपा बगैर जीना असंभव है | मैं बचपन मे देखता था , जो लोग नास्तिक हैं वह अपनी निजी जिंदगी मे सफल थे , उनके पास पैसा , मान , प्रतिष्ठा सबकुछ था और हमारी हालत खस्ता थी | धीरे-धीरे मेरा भगवान परसे विश्वास उड़ गया और इश्वर श्रद्धा छोडिए मैं भगवान को नमस्कार करना भी पागलपन समझता था | मेरी नास्तिकता इस हद तक बढ़ गई थी की मेरी माँ मुझे पूजा करने को कहती तो मैं मजाक उडाकर कहता था , " अगर तुम्हारा भगवान अस्तित्व मे हैं तो उसे मेरे सामने आकर खड़ा होने  के लिए कहों , अगर वह मेरे सामने आता हैं तो ही मैं उसे मानूँगा और अच्छी तरह परखने के बाद यदी मेरा मन कहता है की यह वाकई भगवान है तभी मैं उसकी पूजा करूँगा " | इसपर मेरी माँ मुझे समझाने की कोशिश करती कहती थी ," बेटा , इन हजारो सलोंमे तेरे जैसे , ऐसे सवाल करने वाले लाखो पैदा हुए और गुजर भी गए , लेकिन उस वक्त भी भगवान और उनके करोड़ों भक्त थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे " | मैं उनकी बात नहीं मानता और उसे हंसी मे उड़ा देता था |
मेरी नास्तिकता के आग़ मे तेल डालने का काम किया मेरे पिताजी के बिगड़ती तबियत ने | मेरे पिताजी की तबियत बिगड़ गई तो मेरे माँ की पूजा दुगनी हो गई | मैं हैरान था , एक तरफ़ भगवान तकलीफों के भंडार खोल कर हम पे बरसा रहा था , तो दुसरी तरफ़ मेरी माँ उसी भगवान से मदद की आशा कर रही थी | इसी दरमियान माँ जी जिस स्कूल मे शिक्षिका की नौकरी कर रही थी , उनकी सह-शिक्षिका श्रीमती सुहासिनी कुलकर्णी जी ने कहा , "आपके पतिजी की तबियत बहोत सालोंसे खराब है , हमारे घर एक सिद्ध पुरुष सांगली से आए है , आप उन्हे मिलिए , उनकी कृपा से आपके पतिजी की तबियत हो सकता है ठीक हो जायेगी " | माँ की आग्रह पर , मैं ना चाहते  हुए भी , उनके साथ श्री. मोहन जनार्दन जोशी नामक व्यक्ति से मिलाने गया ( जो कुछ साल बाद मेरे आध्यात्मिक गुरु बने | उन्हे हम सारे भक्त ' काका महाराज जी ' या ' काका जी ' के नामसे जानते हैं ) | ' काका जी ' ने हमें पिताजी के साथ ' श्री क्षेत्र नृसिंह वाडी ' आकर , कुछ धार्मिक विधि करने को कहाँ ( ' श्री क्षेत्र नृसिंह वाडी ' नरसोबा वाडी नामसे सांगली ,महाराष्ट्र मे प्रचलित है और यहापर ' श्री नृसिंह सरस्वती ' , जो भगवान दत्त जी के तीसरे अवतार माने जाते है , उनका वास्तव्य रहा हैं ) | मेरे मन मे विचार आया , चार सालसे बड़े-बड़े डॉक्टर उपचार करके थक चुके है , तीन दिनमे यहाँ क्या होगा ? फिरभी हम सब वहाँ गए |
                   एक दिन ' श्री नृसिंह सरस्वती जी ' के मंदिर मे पिताजी की तबियत बेहोश होने की हालत तक बिगड़ गई | उनकी आँखे बंद हो रही थी , बदन ढीला पड़ रहा था | पिताजी को सहारा देकर बिठाते हुए माँ मुझे बोली ," तुरंत जाकर 'काका जी' को लेकर आ " | मैं चिल्लाया ," काका जी यहाँ आकर क्या करेंगे ? पिताजी को डॉक्टर के  इलाज की जरुरत है "| माँ ने मेरी अल्प-बुद्धि को तुरंत भाप लिया , मुझे पिताजी का खयाल रखने को कहकर वह 'काका जी' को ले आने दौडती चली गई | 'काका जी' थोड़ी दूरीपर पेड़ के निचे साधना करते बैठे थे | माँ की बात सुनकर वे  फ़ौरन चले आए | परिस्थिती की गंभीरता को देखकर , उन्होने शांत चित्त से मंदिर मे जहाँ भस्म रखा था वहाँसे चुटकीभर भस्म लिया और भगवान के सामने कुछ मंत्र पढ़कर , वहीँ भस्म मेरी हथेली पे रखा | 'काका जी' मुझे बोले " यह भस्म अपने पिताजी के जिंव्हा (जबान ) पर रखो " | मैं सोच रहा था , इस भस्म से ऐसा क्या जादू होनेवाला है ? फिरभी मैंने भस्म को पिताजी के पीड़ा से खुले हुए मुंह मे डाला | चमत्कार....... पिताजी ने आँखे फटाक से खोल दी | अचानक उनके जमीं पर ढीले पड़े शरीर मे चेतना आ गई , वे त्वरित उठकर बैठ गए | उन्होने हमसे पुंछा ," ऐसा क्या कर दिया आपने ? मुझे इतना सुकूं कैसे मिला ? " इस आश्चर्य को देख कर मैंने श्रद्धापूर्वक भगवान और 'काकाजी' को नमन किया और नास्तिक से आस्तिक बन गया |
                               

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