सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

बड़े पर्दे का सपना |

सिनेमाघरमे बड़े पर्देपर हिंदी फिल्ममे अभिनय करते हुए मै अपने आप को  देखूँ  , यह मेरा सपना बचपन से था | घर पर लगे बड़े आईने के सामने इसे साकार होने का खेल मैंने अकेलेमे छुपके बहोत बार खेला था | लेकिन इस सपने को साकार करने का निश्चय मैंने किया तब मेरी उम्र लगभग उन्नीस साल की थी | मैंने अपने पिताजी को इस निर्णय के बारेमे कहा तो उन्होने मुझे सलाह दी , " देखो बेटा , मैंने भी अपने जवानी मे यह कोशीश की थी , परन्तु कामयाबी नहीं मिली और मेरा ख़्वाब अधूरा ही रह गया | एक अच्छी बात यह थी की मै मुंबई मे नौकरी करता था, तो इस क्षेत्र के लोगोंको मिलना आसान था , बहोत पापड़ मैंने भी बेलें थे उन दिनोंमे पर किसीने मेरी दाल गलने नहीं दी "| उसके बाद उन्होने अलमारी मे रखे पुराने फोटो दिखाएँ और आगे बोले ," ऐसे कितने फोटो और मेरा अभिनय अनुभव से भरा बायो-डाटा मैंने फिल्म निर्माण कम्पनियोंमे मे दिया था पर निराशा के अलावा और कुछ हाथ ना आया | तुम तो अभी सोलापुर मे रहेते हो और अभिनय अनुभव भी नहीं है, तुम्हे मौका मिलना तो और भी मुश्किल है "| हमारी आर्थिक परिस्थिती की बदौलत मेरा मुंबई जाकर कोशीश करना असंभव था तो मैंने सोलापुर मे रह्कर अपनी शिक्षा पूरी करनेका और अभिनय तथा नृत्य मे अनुभव लेनेका निर्णय लिया |
                                                वाणिज्य शाखा की पढ़ाई चल रही थी | वह जमाना डिस्को और ब्रेक डांस का था | अभिनय और इन डांस शैलियोंको सीखने के लिएँ मैं एक डांस ग्रुप तथा नाट्य मंडली मे शामिल हुआ | इसके लिए मेरे मित्र राहुल कोठाडिया और उनकी रिश्तेदार डॉ. हर्षदा शहा ने बहोत मदद की थी | तो मेरा दिनक्रम बहोत व्यस्त था , सुबह कॉलेज , दोपहर अकौंटन्सी क्लास और शामको या तो डांस क्लास या नाट्य मंडली मे जाकर नाटक की प्रॅक्टीस | मेरे बाकी मित्र शाम मे घूमने निकली सुन्दर युवतियोंको देखने बाहर निकलते थे और मैं बड़े मुश्किलसे अपने आप को मेरे सपने को साकार करने के लक्ष्य की ओर खींच चल पडता था | यूँही साल गुजर गएँ , मैंने वाणिज्य शाखा की पदवी तथा M.B.A. की शिक्षा पूरी की और साथ-साथ श्री .मनोज शहा और श्री. अन्वर जी से डिस्को तथा ब्रेक डांस सिखा , कुछ स्टेज शो भी किये | उसी दरमियान अलग-अलग नाट्य मंडलियों मे  अभिनय का अनुभव लेता रहा | मेरी अभिनय क्षमता को विकसित करनेमें  श्री. बंडेश पांढरे ,श्री. अजय  दासरी, श्री. अरुण मेहता , श्री. कांबले सर , श्री. अतुल कुलकर्णी , डॉ . वामन देगांवकर , श्री. शिरीष देखणे ,श्री. जगदीश हिरेमठ और मेरे परम मित्र श्री. सुनिल गुरव इन महान दिग्दर्शकोंका बड़ा हाथ रहा है |
                                                अब मुझे लग रहा था की मैं मुंबई जाकर फिल्मो मे अभिनय करने की कोशिश कर सकता हूँ तभी ...................... मेरे पिताजी की दिल का दौरा पडने से मृत्यू हो गई ....... | मेरे लिए यह झटका बहोत ... बहोत बड़ा था | सारी जिम्मेदारी मेरी माँ पर आ पड़ी थी | उसके साथ हाथ बटाने के लिए मैंने नोकरी करनेका निर्णय ले लिया | मेरा सपना मुझसे दूर -दूर हो रहा था | फिर भी मैंने हिम्मत जुटाके नाटकों मे स्टेज पर या उसके पीछे काम करना जारी रखा था |
                                                 माँ १९९६ मे अपनी शिक्षिका के नोकरी से निवृत्त होने के बाद हम दोनों भाग्यनगर हैदराबाद आ गएँ | सिकंदराबाद मे हमारे नानाजी की भेंट दी हुई जमीन पर माँ ने एक घर बनाया ,उसीमें रहने लगे थे | मैंने मेरे रिश्तेदारोंको बताया की अब मै अभिनय क्षेत्र मे काम करना चाहता हूँ | बड़े विचार-विमर्श के बाद मेरे मामाजी डॉ .बी. रामाराव , मौसेरे भाई श्री . अनिल देशपांडे और श्री . नंदू गामजी चाचा जी के मदद से मै श्री. कृष्णा भारद्वाज जी से मिला | वह उन दिनों एक टी.व्ही. धारावाहिक के लिए कास्टिंग इंचार्ज थे और उसीमे अभिनय भी कर रहे थे | उन्होने मुझे टी.व्ही . कॅमेरा के सामने धारावाहिक मे काम करनेका पहला मौका दिया | उसके बाद कई हिंदी और मराठी टी .व्ही . धारावाहिकोंमे अभिनय करनेका सिलसिला चलता रहा |
                                                एक दिन खबर आई की प्रसिद्ध दिग्दर्शक श्री. नागेश कुकुनूरजी , जाने-माने शो- मन  श्री. सुभाष घई जी के मुक्ता आर्ट्स के लिए ' इकबाल ' फिल्म बना रहें है और उस के लिए ऑडीशन ( पात्र -निर्धारण ) हो रहा है |   मेरे स्नेही  श्री.भास्कर और डॉ.श्रीकांत के मदद से मैंने ऑडीशन दिया और क्रिकेट सिलेक्शन कमिटी चेयरमन सुनिल मित्रा के पात्र के लिएँ चुन भी लिया गया | फिल्म शूटिंग के दिन सुबह चार बजे उठकर चले गया और मुझे पता चला के मेरे तीन सीन विश्वप्रसिद्ध महान अभिनेता , जिनका मैं कई सालोंसे फॅन हूँ , श्री . नसीरुद्दीन शाह जी के साथ है | मुझे पसीने छूट गए | जैसे-तैसे हिम्मत जुटाकर मैंने शूटिंग पूरी की | श्री. नागेश कुकुनूर जी को धन्यवाद देकर मैं घर वापिस आ गया | मैं खुशी के मारे मानो आसमान मे उड़ रहा था |
                                               प्रसाद आई-मॅक्स सिनेमाघर मे फिल्म लगी थी | मैं ,मेरी माँ,पत्नी , मेरी दो बेटियाँ, मामाजी और ममेरा भाई श्रीनिवास हम सब मिलके फिल्म देखने गएँ | मेरे ४५ वर्ष के आयु  मे बहोत खुशी के क्षण चंद ही है , यह क्षण उसमेसे एक है ...... मेरे अभिनीत सीन आएँ...... मेरी आखोँ मे खुशी के आँसू थे , क्यों की ..........
                                            लगभग बीस साल के प्रदीर्घ प्रतीक्षा , मेहनत और लगन के बाद मेरा और मेरे पिताजी का --- बड़े पर्दे का सपना पूरा हो रहा था |

शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

सही वक्त + कड़ी मेहनत = लक्ष्य प्राप्ति .( काल्पनिक बाल-किशोर कथा )

बहोत साल पहले रामनगर नामक राज्य था | राजा जयराम अत्यंत पराक्रमी ,दयालू था और रामनगर की प्रजा अपने राजा तथा उनकी पत्नी रूपवती,धार्मिक रानी सीतादेवी पर अत्यंत प्यार और सन्मान करती थी | राजपुत्र विक्रम अब बड़े हो रहे थे, राजा और रानी को एक ही  चिंता थी की राजपुत्र विक्रम को पढ़ाई मे दिलचस्पी बिलकुल नहीं थी |राजा जयराम सीतादेवी से कई बार कहतें थे, "राजपुत्र विक्रम को मेरे बाद उत्तम राज्य करना है तो उन्हे राज्य शासन के सभी पहलू ,विषय का ज्ञान होना आवश्यक है "| परन्तु राजपुत्र विक्रम अपने खेलकूद मे मस्त थे |
                           युहीं कई साल गुजर गएँ और एक दिन प्रदीर्घ बीमारी के बाद राजा जयराम परलोक सिधार गएँ | केवल पन्द्र्हः वर्ष की उम्र मे ही राजपुत्र विक्रम को रामनगर राज्य की जिम्मेदारी स्वीकारनी पड़ी | दुसरी ओर, राजा दुष्ट कर्मा इसी मौके की तलाश कई सालोंसे कर रहा था | उसने अपने मंत्रियोंकी गुप्त बैठक बुलाई और बोला ," यही सही वक्त है समृद्ध रामनगर पर धावा बोल देनेका,  राजा जयराम नहीं रहे ,राजा  विक्रम अभी बच्चा है, उसे अनुभव की कमी ,प्रजा का विश्वास तथा साथ  हासिल नहीं है तो हमले की तैय्यारी तुरंत की जाएँ "| राजा जयराम के निधन दुखः से प्रजा संवरने से पहलेही दुष्ट कर्मा का हमला रामनगर पे हुआ | इस बड़े हमलेमे, रामनगर राज्य के सैनिक जान की बाजी लगाकर लड़े पर राजा विक्रम के  कमजोर नेतृत्व की वजह से रामनगर राज्य की हार हुई | महारानी सीतादेवी और राजा विक्रम जैसे-तैसे जान बचाकर पड़ोसी राज्य शिवपुरी मे शरण लेने मे सफल हो गएँ |
                         शिवपुरी के राजा नागसेन महारानी सीतादेवी के छोटे भाई थे | वहाँ राजा विक्रम ने शरण जरूर ली थी पर उन्हे चैन बिलकुल नहीं था , वह हमेशा रामनगर की पहली हार के बारेमे सोचते थे | बहोत विचार-विमर्श के बाद उन्हे पता चला और एक दिन वह अपने मामा राजा नागसेन से बोले, "मामाजी ,सही उम्र मे विद्या ग्रहण करने के बजाय मैं खेलता रहा और राज्य शासन ज्ञान के आभाव से ही मेरी शर्मनाक हार हो गई | अब मेरे पास वक्त कम है तो दिन-रात मेहनत करके मैं राज्य शासन ज्ञान पाऊंगा और अपने रामनगर को वापस जीत लूँगा "| राजा नागसेन ने निपुण राजगुरु विष्णु शर्मा        जी की नियुक्ति इस कम के लिए की |
                        राजगुरु विष्णु शर्मा जी के मार्गदर्शन तले राजा विक्रम ने अथक परिश्रम से राजनिती शास्त्र , युद्धनिती शास्त्र , अर्थ शास्त्र ,विविध शस्त्र विद्या और बाकी विषयोमें महारत हासिल की | एक दिन वह अपनी माँ सीतादेवी ,मामा राजा नागसेन और उनके मंत्रियोंकी गुप्त सभा मे बोलें ," माननीय सज्जन गण,मेरे गुप्तचरों ने मुझें यह जानकारी दी है की राजा दुष्ट कर्मा के अन्याय से रामनगर की जनता त्रस्त है और हमारे छुपें ईमानदार सैनिक और जनता दुष्ट कर्मा के दुःशासन के खिलाफ़ विरोध  करनेवाली है , हमें उन्हे शस्त्र सहाय्यता करनी चाहिए | एक तरफ़ अंदर से सशस्त्र विरोध और दुसरीतरफ़ से हमारा आप सबकी सहाय्यता से युद्ध, दुष्ट कर्मा इन दोहरे हमले के सामने नहीं टिक पायेगा"| राजा नागसेन, राजा विक्रम के आत्मविश्वास ,दूरदृष्टि और युद्धनिती से प्रभावित हुए , उन्होने जाना की निपुण राजगुरु विष्णु शर्मा ने शिक्षा देनेमे और राजा विक्रम ने सिखनेमे कोई कसर नहीं छोड़ी है | उन्होने संपूर्ण मदद की हामी दी |
                       जब दुष्ट कर्मा और उसके सैनिक रामनगर प्रजा के सशस्त्र विरोध को रोकने मे व्यस्त थे, राजा विक्रम और शिवपुरी की सेनाने मिलकर दुष्ट कर्मा पर हल्ला बोल दिया | इस घनघोर युद्ध मे दुष्ट कर्मा मारा गया और राजा विक्रम ने रामनगर को जीत लिया | रामनगर प्रजा ने महारानी सीतादेवी और राजा विक्रम का हर्ष-उल्ल्हास के साथ स्वागत किया और राजा विक्रम ने आगे अनेक वर्षों तक रामनगर मे कुशलता से सुशासन किया | 
                      तो देखा दोस्तों , सही उम्र मे राजा विक्रम ने सही मेहनत ना करनेका नतीजा ,उन्हे अपना राज्य खोना पड़ा और कम समय मे दुगनी मेहनत करके उसी राज्य को वापस हासिल करना पड़ा | आपकी यह उम्र खूब पढ़ाई करने और अच्छे नंबर पाने तथा उच्च शिक्षा पानेकी है | अगर इसे   आप खो दोगे तो आपको भी आगे दुगनी कोशिश करनी होगी, तभी यश मिलेगा |खूब पढ़ो और उच्च शिक्षा पाके इस दुनिया मे छा जाओ यही सदिच्छा |     

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

ऐ नारी तुझे लाखों सलाम ( भाग -१ )

जैसे ही यू-ट्यूब से यह व्हीडियो शुरू हुआ ,मैंने देखा एक बड़े हॉल मे बड़े,सजे स्टेज पर तालियोंकी गडगडाहट मे एक औरत का , जो लाल नेहरु शर्ट,कालीसलवार और चश्मा पहने खड़ी थी , स्वागत हो रहा था | उनका पहला वाक्य मैंने सुना "आज मैं मानव अधिकार के सबसे घिनौने हनन ,तीसरे सबसे बड़े संघटित अपराधिक गतिविधी,सैकड़ो करोड़ डॉलर का गैर-कानूनी व्यापार और आधुनिक दुनिया मे हो रही गुलामी के बारेमें बात करने वाली हूँ "| फिर स्टेज पर लगी बड़ी स्क्रीन पर तीन छोटी मासूम लडकियोंके के फोटो दिखाकर आगे बोली ,"इन तीन लड्कियों के नाम प्रणिता,शाहीन और अंजलि हैं | प्रणिता की माँ वेश्या और H . I . V . एड्स से पीड़ित, थी | उसके असाध्य रोग के आखरी दिनोंमे वह वेश्या व्यवसाय नहीं कर पा रही थी , तो उसने चार साल की प्रणिता को एक दलाल को बेच दिया | जब हम उसे छुड़ाने गए थे तबतक उसके साथ तीन आदमियोंने ( हैवानोंने )बलात्कार किया था "| मैं सुन्न होकर आगे सुन रहा था ,"शाहीन ,दुसरी छोटी लड़की ,हमें रेलवे पटरी पर पड़ी हुई मिली ,उसके साथ ना जाने कितने लोगोंने बलात्कार और अत्याचार किया था ,क्यों की उसकी अंतडियां पेट से बाहर आ गई थी| उसका ऑपरेशन अस्पताल मे हुआ तो बत्तीस टांके लगे ,अंतडिया उसके शरीर मे सही ठिकाने लगाने को |
                                                 अंजलि,तीसरी मासूम बच्ची,उसका पिता अव्वल नंबर का शराबी,उसने अपने पांच साल के बेटी को लैंगिक सम्बंधोपर फिल्म चित्रीकरण (BLUE FILM ) के लिए बेच दिया" | मेरा दिल यह सब सुनके दहेल उठा |आगे वह बोल रही थी ,"इस देशमे तथा दुनिया मे ऐसे हज्जारों बच्चे गुलामी व्यापार ,गोद लेनेके व्यापार,शरीर अंग बेचनेके व्यापार,ऊंट रेस व्यापार (ऊंट के पीठपर बच्चोंको बंधा जाता है,उनके डर से जोरसे चिल्लाने की आवाज से ऊंट रेस मे तेजीसे भागते हैं) और लैंगिक शोषण व्यापार के लिए बेचे और ख़रीदे जाते हैं | मैं बच्चों और औरोतों पर होते लैगिक शोषण के खिलाफ़ काम करती हूँ" |उस समाज सेविकाने आगे खुलासा किया,"मैं इस क्षेत्र मे यौन उम्रसे ही काम कर रही हूँ ,आज मेरी उम्र चालीस साल की है | इस कार्य मे मैं इसलिए उतरी क्यों की मैं जब पन्ध्रह साल की थी मुझपर आँठ लोगोंने सामूहिक बलात्कार किया था | मुझपर बलात्कार हुआ इसका दुःख मुझे जरूर था लेकिन उससे ज्यादा गुस्सा इस बात का था की मुझे दो सालतक अपनोंने घरमे कैद करके रखा था ,मुझपर ताने कसे जाते थे | अक्सर यहीं होता है,पीड़ित कैद हो जाते है और अपराधी सीना तानके समाज मे घूमते हैं |इसका प्रमुख कारण,  सुसंकृत समाज ऐसे पीड़ित लोगोंको अपने पैरोपर खड़े होनेकी हिम्मत और अवसर नहीं देता |यह मत समझिए की सिर्फ गरीब बच्चे और औरतेंही लैंगिक शोषण का शिकार होते हैं बल्कि उच्च वर्गीय,मध्यम वर्गीय घरके बच्चो और औरतोंको इसका शिकार होतें हमने देखा हैं | मैंने तीन हजार दो सौं से ज्यादा लोगोंको लैंगिक शोषण होने के बाद या पहले बचाया है | इस दौरान मेरे ऊपर चौदह बार जानलेवा हमले, इस क्षेत्रमे व्यापार करनेवाले माफिया लोगोंसे,हुए हैं| यही वजह है ,मैं अपने दाहिने कान से  नहीं सुन सकती ,हमारे एक कर्मचारी की जान भी इस बचाव कार्यमे गई है | हमने और कुछ जागरूक कम्पनियोंने मिलके ऐसी पीड़ित औरतोंको नौकरी दिलवाने मे मदद की है | आज बहोत सारी ऐसी महिलाऐं अपने पैरोपर खड़ी होकर स्वाभिमान से अच्छे पैसे कमा रही हैं" | यह बात सुनकर पहलीबार मेरे मनमें आशा की किरन जाग उठी | इस समाज सेविका की सुसंस्कृत समाजसे एक ही मांग हैं ,"इन लैंगिक शोषण पीड़ित लोगोंको आप असुरक्षित समाज के लाचार शिकार की तरह देखकर सिर्फ सहानुभूति या चर्चा,तानों का विषय ना बनाकर, उन्हे इसी समाज मे अपनाकर अपनी रोजी-रोटी कमानेका हक दीजिए | मैं आपको अन्ना हजारे, गांधीजी,मेधा पाटकर जी बनने के लिए नहीं कह रही हूँ | मेरी माँग आपसे सिर्फ यही है की आप यह कहानी सिर्फ दो लोगोंको बोलियें ताकि उनका नजरियाँ बदल जाए और वे लोग भी आपकी तरह ऐसे पीड़ित लोगोंको इस समाज मे अपना ले और आपकी तरह यह कहानी और दो लोगोंको बताएँ और यह समाज उन्हे इज्जत की रोटी कमानेमे सहाय्यता करें , धन्यवाद "| मेरे मन मे वेदना,गुस्सा और आँखों मे शर्म के आँसू थे | मैं सोच रहा था , क्या हम, हमारी सरकार अपने देश के बच्चों और औरतोंकी, लैंगिक शोषण करनेवालें माफिया,अपराधी लोगोंसे , रक्षा करने के लिए  एक सक्षम व्यवस्था और कानून बना नहीं सकते ? हम सब जिम्मेदार नागरिक है तो जरूर ऐसी व्यवस्था बना सकते हैं | इसके लिए यह कहानी दो लोगोंको सुनाकर जागृति लानी होगी | मैंने कोशिश की है ,मुझे विश्वास है के आप भी करेंगे |
                                                                      इस कहानी को सुनानेवाली समाज सेविका श्रीमती सुनीता कृष्णन जी , आपकी हिम्मत , कार्य और आपको मेरे लाखों सलाम | 

बुधवार, 14 सितंबर 2011

नास्तिक बन गया आस्तिक

                                                            || श्री गणेश दत्त गुरुभ्यो नमः ||
आज मैं अपने पहले लेख की शुरुआत आधि देवता गणेश जी और भगवान दत्त जी को नमन करके कर रहा हूँ | लेकिन लगभग तीस साल पहले मैं ऐसा नहीं था | मैं पक्का नास्तिक था | मेरे सौभाग्य से मेरा जन्म एक धार्मिक परिवार मे हुआ | विशेषतः मेरी माँ , जो आज भी इस बात पे पूरा विश्वास करती है की भगवान के कृपा बगैर जीना असंभव है | मैं बचपन मे देखता था , जो लोग नास्तिक हैं वह अपनी निजी जिंदगी मे सफल थे , उनके पास पैसा , मान , प्रतिष्ठा सबकुछ था और हमारी हालत खस्ता थी | धीरे-धीरे मेरा भगवान परसे विश्वास उड़ गया और इश्वर श्रद्धा छोडिए मैं भगवान को नमस्कार करना भी पागलपन समझता था | मेरी नास्तिकता इस हद तक बढ़ गई थी की मेरी माँ मुझे पूजा करने को कहती तो मैं मजाक उडाकर कहता था , " अगर तुम्हारा भगवान अस्तित्व मे हैं तो उसे मेरे सामने आकर खड़ा होने  के लिए कहों , अगर वह मेरे सामने आता हैं तो ही मैं उसे मानूँगा और अच्छी तरह परखने के बाद यदी मेरा मन कहता है की यह वाकई भगवान है तभी मैं उसकी पूजा करूँगा " | इसपर मेरी माँ मुझे समझाने की कोशिश करती कहती थी ," बेटा , इन हजारो सलोंमे तेरे जैसे , ऐसे सवाल करने वाले लाखो पैदा हुए और गुजर भी गए , लेकिन उस वक्त भी भगवान और उनके करोड़ों भक्त थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे " | मैं उनकी बात नहीं मानता और उसे हंसी मे उड़ा देता था |
मेरी नास्तिकता के आग़ मे तेल डालने का काम किया मेरे पिताजी के बिगड़ती तबियत ने | मेरे पिताजी की तबियत बिगड़ गई तो मेरे माँ की पूजा दुगनी हो गई | मैं हैरान था , एक तरफ़ भगवान तकलीफों के भंडार खोल कर हम पे बरसा रहा था , तो दुसरी तरफ़ मेरी माँ उसी भगवान से मदद की आशा कर रही थी | इसी दरमियान माँ जी जिस स्कूल मे शिक्षिका की नौकरी कर रही थी , उनकी सह-शिक्षिका श्रीमती सुहासिनी कुलकर्णी जी ने कहा , "आपके पतिजी की तबियत बहोत सालोंसे खराब है , हमारे घर एक सिद्ध पुरुष सांगली से आए है , आप उन्हे मिलिए , उनकी कृपा से आपके पतिजी की तबियत हो सकता है ठीक हो जायेगी " | माँ की आग्रह पर , मैं ना चाहते  हुए भी , उनके साथ श्री. मोहन जनार्दन जोशी नामक व्यक्ति से मिलाने गया ( जो कुछ साल बाद मेरे आध्यात्मिक गुरु बने | उन्हे हम सारे भक्त ' काका महाराज जी ' या ' काका जी ' के नामसे जानते हैं ) | ' काका जी ' ने हमें पिताजी के साथ ' श्री क्षेत्र नृसिंह वाडी ' आकर , कुछ धार्मिक विधि करने को कहाँ ( ' श्री क्षेत्र नृसिंह वाडी ' नरसोबा वाडी नामसे सांगली ,महाराष्ट्र मे प्रचलित है और यहापर ' श्री नृसिंह सरस्वती ' , जो भगवान दत्त जी के तीसरे अवतार माने जाते है , उनका वास्तव्य रहा हैं ) | मेरे मन मे विचार आया , चार सालसे बड़े-बड़े डॉक्टर उपचार करके थक चुके है , तीन दिनमे यहाँ क्या होगा ? फिरभी हम सब वहाँ गए |
                   एक दिन ' श्री नृसिंह सरस्वती जी ' के मंदिर मे पिताजी की तबियत बेहोश होने की हालत तक बिगड़ गई | उनकी आँखे बंद हो रही थी , बदन ढीला पड़ रहा था | पिताजी को सहारा देकर बिठाते हुए माँ मुझे बोली ," तुरंत जाकर 'काका जी' को लेकर आ " | मैं चिल्लाया ," काका जी यहाँ आकर क्या करेंगे ? पिताजी को डॉक्टर के  इलाज की जरुरत है "| माँ ने मेरी अल्प-बुद्धि को तुरंत भाप लिया , मुझे पिताजी का खयाल रखने को कहकर वह 'काका जी' को ले आने दौडती चली गई | 'काका जी' थोड़ी दूरीपर पेड़ के निचे साधना करते बैठे थे | माँ की बात सुनकर वे  फ़ौरन चले आए | परिस्थिती की गंभीरता को देखकर , उन्होने शांत चित्त से मंदिर मे जहाँ भस्म रखा था वहाँसे चुटकीभर भस्म लिया और भगवान के सामने कुछ मंत्र पढ़कर , वहीँ भस्म मेरी हथेली पे रखा | 'काका जी' मुझे बोले " यह भस्म अपने पिताजी के जिंव्हा (जबान ) पर रखो " | मैं सोच रहा था , इस भस्म से ऐसा क्या जादू होनेवाला है ? फिरभी मैंने भस्म को पिताजी के पीड़ा से खुले हुए मुंह मे डाला | चमत्कार....... पिताजी ने आँखे फटाक से खोल दी | अचानक उनके जमीं पर ढीले पड़े शरीर मे चेतना आ गई , वे त्वरित उठकर बैठ गए | उन्होने हमसे पुंछा ," ऐसा क्या कर दिया आपने ? मुझे इतना सुकूं कैसे मिला ? " इस आश्चर्य को देख कर मैंने श्रद्धापूर्वक भगवान और 'काकाजी' को नमन किया और नास्तिक से आस्तिक बन गया |